Monday, October 25, 2010

Aahat. . .

Aahat. . .
aishwarya
Khaamosh guzar ti ho ,
Aangan se nakaabo.n main,
Haule se chhupa detin,
Munh apana kitaabon main.
Kangan ko karogi chup,
Paayal bhi utaarogi ,
Dhad_kan ka karogi kyaa ,
Aahat to wohi hogi
Hai pyaar hamai.n tum se,
Hamraaz farishtey hain,
Pehachaan le laankhon main,
Ye rooh ke rishtey hain.

SATYAM SRIVASTAVA

Ek kona aakaash . . .

aishwarya

Ek kona aakaash . . .
Itne bade aasmman main se,
Kona ek hamain de deti.n,
Koi naam tumhai.n ham dete,
Koi naam hamain de deti.n.

Itne khel khel leti ho,
Khilti ho khushboo deti ho,
Kahatee yaa, choodi khanakaa kar,
Man ki baat zaraa keh detin

Tumse kuch poochai.n to kaise,
Kaise kahe.n kaho to yaara,
The na jab jawab zabaa.n par,
Binaa sawalo.n ke de deti.n

Dekhi maut paas se tab se,
Hamko jeene ki sudh aayee,
Khushi kahaa.n hain dhoond rahe hai.n,
Apanaa saath zaraa de deti.n
.
Sabhi qaayade aur kitaabe.n,
Jeene ke raste kahate hai.n
,
Jaan kahaan hai jaan gayee ho,
Hans kar haath zaraa de deti.n !



Paas se . . .

ash
Tumhai.n dekhataa hoo.n
Jab paas se mai.n,
Kuchh ek saans letaa hoo.n
Vishwaas se mai.n.

Samandar samandar
Kaha.n tak chaloonga,
Tanha raat bhar yoo.n
Kaha.n tak jaloonga,
Yo.n sheesho.n se bach kar,
Yo.n bheedo.n main chhupkar,
Mai.n apane hi mann ko
Kahaa.n tak chhaloongaa,
Bahut thak gayaa hoo.n
Is aabhaas se mai.n

Tumhai.n dekhataa hoo.n
Jab paas se mai.n !

Har ek dard dil mai.n
Chhupaaye chhupaaye ,
Koi zindagi ko kaha.n tak
Chukaaye ,
Har ek shaam dhoondhali,
Har ek raat kaali,
Sitaare bhi hote hai.n
Kitane paraaye,
Bahut mil gayaa hoo.n
Aakaash se mai.n,

Tumhai.n dekhataa hoo.n
Jab paas se mai.n !



SATYAM SRIVASTAVA

Kaho na ..

Kaho na ..
ash
Kuchh pal saath chale to jaanaa,
Rastaa hai jaanaa pehchanaa .
Saanso ko sur de jaataa hai,
Tera yo.n sapano mai.n aanaa.
Maine jatan kiye to lakho.n
Mann ne meet tumhi ko maanaa

Ab to haath thhaam lene do
Aur kaho na , na na , na na !

.... Satyam......
Kuchh kaho na !

dilse
Sau janam ka saath apna,
Sans ka dhadkan se jaise,
Aas ka jeevan se jaise,
Kaise kate saal solah,
Shyam ki jogan ke jaise.
Jhoot ke parde na dhoondo,
Sach kaho na .
Kuchh kaho na ..
 
 Ek dooje ke liye ham,
Haath main kangan ke jaise,
Pyaas main sawan ke jaise,
Roop ko darpan ke jaise,
Bhakt ko bhag_van ke jaise.
Jheel si simtee na baitho,
Kuchh baho na .
 Kuchh kaho na ..
Jaanata hoon thak gayee ho,
Umr ke lambe safar se,
Saanp se dasate shahar se,
Aas se aur aansuon se,
Bheed ke gahare bhawanar se.
Waqt firata hai suno,
Itna daro na . 

Kuchh kaho na ..
 
 Kis tarah ladatee rahi ho,
Pyaas se parchhaiyon se,
Neend se , angadaiyon se,
Maut se aur zindagi se,
Teej se ,tanahaiyon se.
Sab tapasya tod dalo,
Ab saho na
Kuchh kaho na !!
 
  
Kuchh kaho na !
photobyhemantkhandelwal
Syaah sannaton main hamane,
Umr katee hai tanhaa,
Tang aur andhi surangen,
Is gufaa se us gufaa.

Saans thi sahami hui si,
Dhadakanon ko ek darr,
Itnaa tanhaa aur lambaa,
Zindgi ka uff safar.
Door meelon door jalati ,
Lau koi lagatee ho tum ,
Tum ho,tum ho,Tum hi tum ho ,
Ho naa tum, tum, ho naa tum.

Pal se pal tak jee rahe hain,
Tum hi pal pal aas ho na,
Ek pal to aur thaharo ,
Ek pal dikhati raho na .

Kuchh kaho na !!

Thursday, October 21, 2010

किताब

किताब
हैरत है।
अक्षर नहीं हैं आज किताब पर

कहाँ चले गए अक्षर
एक साथ अचानक?

सबेरे सबेरे
काले बादल उठ रहे हैं चारों ओर से
मैली बोरियां ओढ़कर सड़क की पेटियों पर
गंदगी के पास सो रहे हैं बच्चे
हस्पताल के बाहर सड़क में
भयानक रोग से मर रही है एक युवती
पैबन्द लगे मैले कपड़ों में
हिमाल में ठंड से बचने की प्रयास में कुली
एक और प्रहर के भोजन के बदले
खुदको बेच रहे हैं लोग ।

मैं एक एक करके सोच रहा हूँ सब दृश्य
चेतना को जमकर कोड़े मारते हुए,
खट्टा होते हुए, पकते हुए
खो रहा हूँ खुद को अनुभूति के जंगल में ।

कितना पढूँ ? बारबार सिर्फ किताब
समय को टुकडों में फाड़कर
मैं आज दुःख और लोगों के जीवन को पढूंगा ।

अक्षर नहीं हैं किताब पर आज।

* * *

एक बौनी बूँद

एक बौनी बूँद

एक बौनी बूँद ने
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा

बाकी बूँदें भी
देखा देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का मुक्की
लगा लटकीं

क्षण भर के लिए
लंबी हुई
फिर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूँदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी।
* * *

प्यार गंगा की धार

प्यार गंगा की धार

रजनी जग को सुलाये
सहे तिमिर का वार
नभ खुश हो पहनाये
चांद-तारों का हार

बन के खुद आइना रहा रूप को निखार
प्यार गंगा की धार

भूख सह कर भी मां
दर्द से जार-जार
तृप्त कर दे शिशु को
कैसी खुश हो अपार

भर के बांहों में वह करे असुंवन संचार
प्यार गंगा की धार

भक्त सहते गये
दुष्ट दैत्यों की मार
किया जगजननी ने
राक्षसों पर प्रहार

माँ की लीली कहे करुणा जीवन का सार
प्यार गंगा की धार

प्रकृति मां का रूप
झेले जगति का भार
लालची नर करे
दासी जैसा व्यवहार

छेद ना कर मूरख जबकि नैया मंझदार
प्यार गंगा की धार

क्रोध मद लोभ से
हुआ जीवन दुष्वार
काम से निकला प्रेम -
पुष्प के रस का तार

बांध कर ले गया स्वार्थ-लिप्सा के पार
प्यार गंगा की धार।

* * *

माँ की व्यथा

माँ की व्यथा
मेरी व्यथा
अनकही सही
अनजानी नहीं है
मुझ जैसी
हज़ारों नारियों की
कहानी यही है

जन्म से ही
खुद को
अबला जाना
जीवन के हर मोड़ पर
परिजनों ने ही
हेय माना

थी कितनी प्रफुल्लित मैं
उस अनूठे अहसास से
रच बस रहा था जब
एक नन्हा अस्तित्व
मेरी सांसों की तार में
प्रकृति के हर स्वर में
नया संगीत सुन रही थी
अपनी ही धुन में
न जाने कितने
स्वप्न बुन रही थी

लम्बी अमावस के बाद
पूर्णिमा का चाँद आया
एक नन्हीं सी कली ने
मेरे आंगन को सजाया

आए सभी मित्रगण, सम्बन्धी
कुछ के चहरे थे लटके
तो कुछ के नेत्रों में
आंसू थे अटके
भांति भांति से
सभी समझाते
कभी देते सांत्वना
तो कभी पीठ थपथपाते
कुछ ने तो दबे शब्दों में
यह भी कह डाला
घबराओ नहीं, खुलेगा कभी
तुम्हारी किस्मत का भी ताला

लुप्त हुआ गौरव
खो गया आनन्द
अनजानी पीड़ा से यह सोचकर
बोझिल हुआ मन
क्या हुआ अपराध
जो ये सब मुझे कोसते हैं
दबे शब्दों में
मन की कटुता में
मिश्री घोलते हैं

काश! ममता में होता साहस
माँ की व्यथा को शब्द मिल जाते
चीखकर मेरी नन्हीं कली का
सबसे परिचय यूँ कराते
न इसे हेय, न अबला जानो
'खिलने दो खुशबू पहचानो'

* * *

कहो कैसे हो

कहो कैसे हो
                       लौट रहा हूँ मैं अतीत से
                       देखूँ प्रथम तुम्हारे तेवर
                       मेरे समय! कहो कैसे हो?

शोर-शराबा चीख़-पुकारें सड़कें भीड़ दुकानें होटल
सब सामान बहुत है लेकिन गायक दर्द नहीं है केवल
                       लौट रहा हूँ मैं अगेय से
                       सोचा तुम से मिलता जाऊँ
                       मेरे गीत! कहो कैसे हो?
भवन और भवनों के जंगल चढ़ते और उतरते ज़ीने
यहाँ आदमी कहाँ मिलेगा सिर्फ़ मशीनें और मशीनें
                       लौट रहा हूँ मैं यथार्थ से
                       मन हो आया तुम्हें भेंट लूँ
                       मेरे स्वप्न! कहो कैसे हो?
नस्ल मनुज की चली मिटाती यह लावे की एक नदी है
युद्धों का आतंक न पूछो ख़बरदार बीसवीं सदी है
                       लौट रहा हूँ मैं विदेश से
                       सब से पहले कुशल पूँछ लूँ
                       मेरे देश! कहो कैसे हो?
यह सभ्यता नुमाइश जैसे लोग नहीं हैं सिर्फ़ मुखौटे
ठीक मनुष्य नहीं है कोई कद से ऊँचे मन से छोटे
                       लौट रहा हुँ मैं जंगल से
                       सोचा तुम्हे देखता जाऊँ
                       मेरे मनुज! कहो कैसे हो?
जीवन की इन रफ़्तारों को अब भी बाँधे कच्चा धागा
सुबह गया घर शाम न लौटे उस से बढ़ कर कौन अभागा
                       लौट रहा हूँ मैं बिछोह से
                       पहले तुम्हें बाँह में भर लूँ
                       मेरे प्यार! कहो कैसे हो?

* * *

निश्छल भाव

निश्छल भाव
मेरे अन्दर एक सूरज है, जिसकी सुनहरी धूप
देर तक मन्दिर पे ठहर कर
मस्जिद पे पसर जाती है !
शाम ढले, मस्जिद के दरो औ-
दीवार को छूती हुई मन्दिर की
चोटी को चूमकर छूमन्तर हो जाती है !

मेरे अन्दर एक चाँद है, जिसकी रूपहली चाँदनी
में मन्दिर और मस्जिद
धरती पर एक हो जाते है !
बड़े प्यार से गले लग जाते हैं !
उनकी सद्भावपूर्ण परछाईयाँ
देती हैं प्रेम की दुहाईयाँ !

मेरे अन्दर एक बादल है, जो गंगा से जल लेता है
काशी पे बरसता जमकर
मन्दिर को नहला देता है,
काबा पे पहुँचता वो फिर
मस्जिद को तर करता है !
तेरे मेरे दुर्भाव को, कहीं दूर भगा देता है !

मेरे अन्दर एक झोंका है, भिड़ता कभी वो आँधी से,
तूफ़ानों से लड़ता है,
मन्दिर से लिपट कर वो फिर
मस्जिद पे अदब से झुक कर
बेबाक उड़ा करता है !
प्रेम सुमन की खुशबू से महका-महका रहता है !

मेरे अन्दर एक धरती है, मन्दिर को गोदी लेकर
मस्जिद की कौली भरती है,
कभी प्यार से उसको दुलराती
कभी उसको थपकी देती है,
ममता का आँचल ढक कर दोनों को दुआ देती है !

मेरे अन्दर एक आकाश है, बुलन्द और विराट है,
विस्तृत और विशाल है,
निश्छल और निष्पाप है,
घन्टों की गूँजें मन्दिर से,
उठती अजाने मस्जिद से
उसमें जाकर मिल जाती है करती उसका विस्तार है !

* * *

लो वही हुआ

लो वही हुआ
लो वही हुआ जिसका था डर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

      सूरज की किरन दहाड़ गई,
      गरमी हर देह उघाड़ गई,
      उठ गया बवंडर, धूल हवा में -
      अपना झंडा गाड़ गई,
गौरइया हाँफ रही डर कर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

      हर ओर उमस के चर्चे हैं,
      बिजली पंखों के खर्चे हैं,
      बूढ़े महुए के हाथों से,
      उड़ रहे हवा में पर्चे हैं,
"चलना साथी लू से बच कर".
ना रही नदी, ना रही लहर।

      संकल्प हिमालय सा गलता,
      सारा दिन भट्ठी सा जलता,
      मन भरे हुए, सब डरे हुए,
      किस की हिम्मत, बाहर हिलता,
है खड़ा सूर्य सर के ऊपर,
ना रही नदी ना रही लहर।

      बोझिल रातों के मध्य पहर,
      छपरी से चन्द्रकिरण छनकर,
      लिख रही नया नारा कोई,
      इन तपी हुई दीवारों पर,
क्या बाँचूँ सब थोथे आखर,
ना रही नदी ना रही लहर।

Thursday, October 14, 2010

Svagat

माया विस्तीर्ण जगत की
छल की प्रपंच की छाया
प्रतिविम्ब न ठहरे क्षण भर
हिलती दर्पण की काया


कुछ सघन निराशा के पल
सुधियों से निज संघर्षण
हम समर छोडते फिरते
पर पीछे पड़ जाते रण


विश्वास-विटप उन्मूलित
कामना-कलित झंझा से
अंकुर-अभिलाषा फिर भी
क्यों भ्रूणहीन बंझा से


जैसे प्रवाल कोटर में
मत्स्या के चंचल फेरे
कुछ ध्वनियाँ आती-जाती
रहतीं मस्तके में मेरे


शीशे के नग को पहना
हीरक-मुद्रिका समझ कर
पर वह भी आत्म-विमोहित
जा निकला दूर छिटक कर


अनु्गूँज उठा करती है
प्रायः मानस-तलघर में
कुछ सघन तरंगे आकर
छा जातीं विश्वंकर में


चंचल मन बैठ न पाये
रख धैर्य-शिला पर आसन
उद्धत इंद्रियाँ तोड़तीं
मर्यादा का अनुशासन


अद्भुत रहस्य संकुल सा
मानव मन अगम पहेली
इच्छायें चपल नटी सी
करती रहतीं अठखेली


दुस्तर अगाध भवनिधि में
है दिवास्वप्न की तरणी
शत घूर्णावर्त तरंगे
मथ देतीं जैसे अरणी


पथ निन्दित या अभिनन्दित
संकल्प-विकल्प-अनिश्चय
निज-कर्म-विपाक करेगा
किस पाप-पुण्य का संचय


ज्यों सूक्ष्म भार अंतर से
हो स्वर्ण-तुला में दोलन
लघु लाभ-हानि की गणना
करती मन में आड़ोलन


हैं सुख के क्षण उल्का से
जीवन की अमा-निशा में
तारक-मणियों से मण्डित
नभ, यद्यपि सभी दिशा में


संघर्ष विषय-संयम का
लेता नित नई परीक्षा
प्रायः अनंग के शर से
हो गई बिद्ध गुरु-दीक्षा


विचलन ही है यदि प्रचलन
तब चलन अरक्षित ऐसे
स्वानों के संरक्षण में
हो भोज्य सुरक्षित जैसे


किस प्रेरक की इच्छा से
आकर्षण और विकर्षण
विपरीत वायु के बल से
होते देखा है वर्षण


उत्तर अनेक प्रश्नों का
बस मात्र एक चुप्पी है
सृष्टा की सब मर्यादा
आकर के यहीं छिपी है

विडम्बनाओं का खेल

विडम्बनाओं का खेल


करत करत अभ्यास के
शांतिप्रिय भए शैतान
गाँधी जी के देश में
बंदूक-तमंचे वाले पा रहे इनाम

देश-विदेश के नर-नार ने
देखें राष्ट्रमंडल खेल
लेकिन दिल्लीवासी घर में बंद
जैसे काट रहे हो जेल

खेल के नाम पे लूट है
लूट सके तो लूट
कहने को है गाँव मगर
ठाठ-बाट भरपूर

कलमाडी पुलिया खेल की
क्यूँ दी तोड़ भड़भड़ाय?
सेना ने तो जोड़ दी
पर ओलम्पिक दियो गँवाय

लाखों-करोड़ों फूँक के
किए समारोह भव्य
और रामलला की रामलीला को
मिले छटाँक न द्रव्य

Tuesday, October 5, 2010

इंसान ऊँट बनने लगा है

इंसान ऊँट बनने लगा है

 
पहले शहर के बाहर
एक भव्य
टंकी हुआ करती थी
 
फिर
एक दौर ऐसा आया
कि हर घर की छत पर
सिंटेक्स की काली टंकी
नज़र आने लगी
 
कालांतर में
हर किचन में
एक आर-ओ का
रिवाज़ चल पड़ा
 
अब शनै: शनै:
इंसान ऊँट बनने लगा है
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है
कि पानी की थैली
पेट में न हो कर
पीठ पर है