Tuesday, December 21, 2010

हम भी वापस जाएँगे

आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में,
निर्जन वन के पीछे वाली,
ऊँची एक पहाड़ी पर,
एक सुनहरी सी गौरैया,
अपने पंखों को फैलाकर,
गुमसुम बैठी सोच रही थी,
कल फिर मैं उड़ जाऊँगी,
पार करूँगी इस जंगल को.
वहाँ दूर जो महके जल की,
शीतल एक तलैया है,
उसका थोड़ा पानी पीकर,
पश्चिम को मुड़ जाऊँगी,
फिर वापस ना आऊँगी,
लेकिन पर्वत यहीं रहेगा,
मेरे सारे संगी साथी,
पत्ते शाखें और गिलहरी,
मिट्टी की यह सोंधी खुशबू,
छोड़ जाऊँगी अपने पीछे ....,
क्यों न इस ऊँचे पर्वत को,
अपने साथ उड़ा ले जाऊँ।

और चोंच में मिट्टी भरकर,
थोड़ी दूर उड़ी फिर वापस,
आ टीले पर बैठ गई .....।
हम भी उड़ने की चाहत में,
कितना कुछ तज आए हैं,
यादों की मिट्टी से आखिर,
कब तक दिल बहलाएँगे,
वह दिन आएगा जब वापस,
फिर पर्वत को जाएँगे,
आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में।

Sales ka Banda

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...
Zindagi se hara hua hai ....

Par "customers" se haar nahi maanta,
Apne presentation ki ek line isey rati
hui hai....

par aaj kaun se rang ke moje pehne hain,
ye nahi jaanta,

Din par din ek excel file banata ja raha hai..

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...

Das hazaar customers mein se ache
Customer dhoond lete hain lekin ,

Majboor dost ki ankhhon ki nami
dikhayi nahi deti,

PC pe hazzar windows khuli hain,
Par dil ki khidki pe koi dastak sunayi nahi deti...

Saturday-Sunday nahata nahi ,
Weekdays ko naha raha hai...

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...

Reporting karte karte pata hi nahi chala,
"Boss" kab maa baap se bhi bade ho gaye,

Kitabon me gulab rakhne wala,
Cigrette me kho gaya,

Weekends pe daroo pee ke jo jashn mana raha hai ,

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...................................

Tuesday, December 7, 2010

लंगड़ी

सबको राम राम ....
बहुत से दृश्य दिन भर में आँखों के सामने से गुजरते है| कभी किसी पर मौके पर हम उस  दृश्य से जुड़ जाते है और तब ही कुछ कहने, करने या लिखने की इच्छा जगती है| ऐसा ही एक दिन हुआ ... थोडा ही लिखा है मन और  भी लिखूं पर जी बहुत भारी होकर कलम को आगे नहीं बढने देता|
लंगड़ी

वह चलती है  घुटने पर हाथ धरकर ,
मैं हर माध्यम से उससे अपरिचित हूँ ,
उसे चलते-फिरते दृश्यमात्र की भांति जाना ,
सहसा उसके बचपन की कल्पना जागी ,
उसके सहपाठी लंगड़ी-लंगड़ी चिढाते होंगे,
माता-पिता को कोष होगा या उस ईश्वर को,
मेरा  मन इस कल्पना से द्रवित हो गया,
लंगड़ी का दंश वह सह रही है,
यह सोच मन करुणामय हो गया,
ऐ बेटी क्षमा चाहता हूँ  तुझसे,
तेरी इस अवस्था पर मात्र रो रहा हूँ,
संभवतः हो तूने निष्ठुर सच को अपनाकर,
जीना सिख लिया हो,
मगर मैं रोऊंगा आज जी भर,
सविनय प्रार्थना करूँगा,
उन श्रीराम से जिन्होंने सबको बनाया है| 


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