Saturday, February 26, 2011

झाँसी की रानी


सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

गणपति अथर्वशीर्ष

श्री गणेशाय नम: ।। (शान्तिमन्त्रा:)
ॐ भद्रड् कर्णेभि: शृणुयाम देवा: ।
भद्रम् पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभि: व्यशेम देवहितं यदायु: ।।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृध्दश्रवा: ।
स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा: ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽअरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ।। (अथ अथर्वशीर्षारम्भ: ।)

ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि।
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।
त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम्॥१॥
ऋतं वच्मि । सत्यं वच्मि॥२॥
अव त्वं मां। अव वक्तारं।
अव श्रोतारं। अव दातारं।
अव धातारं। अवानुचानमव शिष्यं।
अव पश्चात्तात्। अव पुरस्तात्।
अवोत्तरात्तात्। अव दक्षिणात्तात्।
अव चोर्ध्वात्तात। अवाधरात्तात।
सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात्॥३॥
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि॥४॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं तत्त्वस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।
त्वं चत्वारि वाक्पदानि॥५॥
त्वं गुणत्रयातीत:। त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मुलाधारस्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्तवं
रुद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्॥६॥
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।
अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।
तारेण ऋध्दं। एतत्तव मनुस्वरूपं।
गकार: पूर्वरुपं। अकारो मध्यमरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्यरुपं। बिन्दुरुत्तररुपं।
नाद: संधानं। स हिता संधि:।
सैषा गणेशविद्या:। गणक ऋषि:।
निचृद्वायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।
ॐ गं गणपतये नम:॥७॥
एकदंताय विद्महे।
वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दंती प्रचोदयात्॥८॥
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृते: पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:॥९॥
नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।
नम: प्रमथपतये। नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्रीवरदमूर्तये नमो नम:॥१०॥
फलश्रुति

एतदथर्वशीर्षं योऽधिते।
स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्वत: सुखममेधते।
स सर्वविघ्नैर्नबाध्यते।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते॥
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रात: प्रयुंजानो अपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति॥
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्दास्यति।
स पापीयान् भवति।
सहस्त्रावर्तनात् यं यं काममधीते
तं तमनेन साधयेत्॥११॥
अनेन गणपतिमभिषिंचति।
स वाग्मी भवति।
चतुर्थ्यामनश्नन् जपति।
स विद्यावान् भवति।
इत्यथर्वणवाक्यं।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्।
न बिभेति कदाचनेति॥१२॥
यो दूर्वांकुरैर्यजति।
स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लार्जैर्यजति स यशोवान् भवति।
स मेधावान् भवति।
यो मोदकसहस्त्रेण यजति।
स वाञ्छितफलमवाप्नोति।
य: साज्यसमिभ्दिर्यजति।
स सर्वं लभते स सर्वं लभते॥१३॥
अष्टौ ब्राह्मणान् समम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्ता सिध्दमंत्रो भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।
महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषद्॥१४॥

श्रीरामरक्षा स्तोत्र



श्रीगणेशाय नमः



श्रीगणेशाय नमः
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य ।
बुधकौशिकऋषिः ।
श्रीसीतारामचन्द्रो देवता ।
अनुष्टुप् छन्दः । सीता शक्तिः ।
श्रीमद्धनुमान् कीलकम् ।
श्रीरामचंद्रप्रीत्यर्थे जपेविनियोगः ।
अथ ध्यानम् ।
ध्यायेदाजानबाहुं धृतशरधनुषंबद्धपद्मासनस्थम् ।
पीतं वासो वसानंनवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामाङ्कारुढसीतामुखकमलमिलल्लोचनंनीरदाभं ।
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनंरामचंद्रम् ॥
इति ध्यानम् ।

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामंराजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्॥२॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम्।
स्वलीलया जगत् त्रातुम् आविर्भूतमजंविभुम् ॥३॥
रामरक्षां पठेत् प्राज्ञः पापघ्नींसर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः॥४॥
कौसल्येयो दृशौ पातुविश्वामित्रप्रियः श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखंसौमित्रिवत्सलः ॥५॥
जिव्हां विद्यानिधिःपातु कण्ठंभरतवन्दितः ।
स्कन्धौ दिव्यायुधःपातु भुजौभग्नेशकार्मुकः ॥६॥
करौ सीतापतिःपातु हृदयंजामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिंजाम्बवदाश्रयः ॥७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनीहनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत् ॥८॥
जानुनी सेतुकृत् पातु जङ्घेदशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलंवपुः ॥९॥
एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृतीपठेत् ।
सचिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयीभवेत् ॥१०॥
पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितंरामनामभिः ॥११॥
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वास्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिंमुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
जगज्जेत्रैकमन्त्रेणरामनाम्नाभिरक्षितम् ।
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था सर्वसिध्दयः ॥१३॥
वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्॥१४॥
आदिष्टवान् यथा स्वप्नेरामरक्षामिमां हरः ।
तथा लिखितवान् प्रातः प्रबुध्दोबुधकौशिकः ॥१५॥
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामःसकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान् सनः प्रभुः ॥१६॥
तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौचीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौरामलक्ष्मणौ ॥१८॥
शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौसर्वधनुष्मताम् ।
रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नौरघूत्तमौ ॥१९॥
आत्तसज्यधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथिसदैव गच्छताम् ॥२०॥
संनद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन् मनोरथोऽस्माकं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥२१॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयोरघुत्तमः ॥२२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशःपुराणपुरुषोत्तमः ।
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः॥२३॥
इत्येतानि जपन् नित्यं मद्भक्तःश्रध्दयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति नसंशयः ॥२४॥
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षंपीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न तेसंसारिणो नरः ॥२५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिंसुंदरम्
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिंविप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेन्द्रं सत्यसन्धं दशरथतनयंश्यामलं शान्तमूर्तिं
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवंरावणारिम् ॥२६॥
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः॥२७॥
श्रीराम राम रघुनंदन राम राम
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
श्रीरामचंद्रचरणौ मनसा स्मरामि
श्रीरामचंद्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचंद्रचरणौ शिरसा नमामि
श्रीरामचंद्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
माता रामो मत्पिता रामचंद्रः ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः ।
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुर्नान्यंजाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तुजनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदेरघुनंदनम् ॥३१॥
लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्रंरघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरुपं करुणाकरं तंश्रीरामचंद्र शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेंद्रियंबुध्दिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतंशरणं प्रपद्ये ॥३३॥
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयोनमाम्यहम् ॥३५॥
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्॥३६॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशंभजे
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मैनमः ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्यदासोऽस्महं
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राममामुध्दर ॥३७॥
रामरामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनामतत्तुल्यं रामनाम वरानने॥३८॥
इति श्रीबुधकौशिकविरचितंश्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ।
॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

हनुमान चालीसा


श्रीगुरु चरन सरोज रज,
निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु,
जो दायकु फल चारि ।।
बुद्धिहीन तनु जानिके,
सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं,
हरहु कलेस बिकार ।।
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ।। १ ।।
राम दूत अतुलित बल धामा ।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ।। २ ।।
महाबीर बिक्रम बजरंगी ।
कुमति निवार सुमति के संगी ।। ३ ।।
कंचन बरन बिराज सुबेसा ।
कानन कुंडल कुंचति केसा ।। ४ ।।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेऊ साजै ।। ५ ।।
संकर सुवन केसरीनंदन ।
तेज प्रताप महा जग बंदन ।। ६ ।।
बिद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ।। ७ ।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ।
राम लखन सीता मन बसिया ।। ८ ।।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि लंक जरावा ।। ९ ।।
भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचंद्र के काज सँवारे ।। १० ।।
लाय सजीवन लखन जियाये ।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ।। ११ ।।
रघुपति कीन्ही बहुत बडाई ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।। १२ ।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ।। १३ ।।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
नारद सारद सहित अहीसा ।। १४ ।।
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ।। १५ ।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा ।
राम मिलाय राज पद दीन्हा ।। १६ ।।
तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना ।
लंकेस्वर भए सब जग जाना ।। १७ ।।
जुग सहस्र जोजन पर भानू ।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।। १८ ।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं ।। १९ ।।
दुर्गम काज जगत के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।। २० ।।
राम दुआरे तुम रखवारे ।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।। २१ ।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना ।
तुम रच्छक काहू को डर ना ।। २२ ।।
आपन तेज सम्हारो आपै ।
तीनों लोक हाँक ते काँपै ।। २३ ।।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम सुनावै ।। २४ ।।
नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरंतर हनुमत बीरा ।। २५ ।।
संकट तें हनुमान छुडावै ।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ।। २६ ।।
सब पर राम तपस्वी राजा ।
तिन के काज सकल तुम साजा ।। २७ ।।
और मनोरथ जो कोइ लावै ।
सोइ अमित जीवन फल पावै ।। २८ ।।
चारों जुग परताप तुम्हारा ।
है परसिद्ध जगत उजियारा ।। २९ ।।
साधु संत के तुम रखवारे ।
असुर निकंदन राम दुलारे ।। ३० ।।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ।। ३१ ।।
राम रसायन तुम्हरे पासा ।
सदा रहो रघुपति के दासा ।। ३२ ।।
तुम्हरे भजन राम को पावै ।
जनम जनम के दुख बिसरावै ।। ३३ ।।
अंत काल रघुबर पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ।। ३४ ।।
और देवता चित्त न धरई ।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ।। ३५ ।।
संकट कटै मिटै सब पीरा ।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।। ३६ ।।
जै जै जै हनुमान गोसाई ।
कृपा करहु गुरु देव की नाई ।। ३७ ।।
जो सत बार पाठ कर कोई ।
छूटहि बंदि महा सुख होई ।। ३८ ।।
जो यह पढै हनुमानचालीसा ।
होय सिद्धि साखी गौरीसा ।। ३९ ।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ।। ४० ।।
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ।।

विशेष चौपाइयोंका अर्थ
            हनुमानजी कपिरूपमें साक्षात् शिवके अवतार हैं । इसलिए यहां इन्हें कपीश कहा गया है । यहां हनुमानजी की तुलना सागरसे की गई है । सागरकी दो विशेषताएं है । एक तो सागरसे भंडारका तात्पर्य है और दूसरा सभी वस्तुओंकी उसमें परिसमाप्ति होती है । अतः हनुमानजी भी ज्ञानके भंडार हैं और इनमें त्रिगुणोंकी परिसमाप्ति होती है । किसी विशिष्ट व्यक्तिका ही जयजयकार किया जाता है । हनुमानजी ज्ञानियोंमें अग्रगण्य हैं, सकल गुणोंके निधान तथा तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाले हैं । अतः यहां उनकी जयजयकार की गई है ।। १ ।।
           सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार वज्र एवं ध्वजाका चिन्ह सर्वसमर्थ महानुभाव एवं सर्वत्र विजयश्री प्राप्त करनेवालेके हाथ होता है और कंधेपर जनेऊ तथा मूंजकी करधनी नैष्ठिक ब्रह्मचारीका प्रतीक है । हनुमानजी इन सभी गुणोंसे संपन्न हैं ।। ५ ।।
          हनुमानजी अविद्याके विपरीत साक्षात् विद्यास्वरूप हैं और गुणोंसे अतीत गुणी तथा अत्यंत चतुर हैं । ‘राम काज लगि तव अवतारा’ (जन्म नहीं) के अनुसार आपका अवतार रामकाजके लिए ही हुआ है । ब्रह्मकी दो शक्तियां है - एक स्थित्यात्मक व दूसरी गत्यात्मक । हनुमानजी गत्यात्मक क्रियाशक्ति हैं अर्थात् निरंतर रामकाजमें संनद्ध रहते हैं ।। ७ ।।
         हनुमानजीमें अष्टसिद्धियां विराजमान हैं । इसी कारण एक स्थानपर आपने छोटा रूप धारण किया, दूसरे स्थानपर आवश्यकतानुसार बडा रूप धारण किया । सूक्ष्म बुद्धिसे ही ब्रह्म जाना जा सकता है - ‘सूक्ष्मत्वात् विज्ञेयं’ तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारोंके आगार लंकाको विशेष पराक्रम और विकटस्वरूपसे ही भस्मसात् किया जा सकता है ।। ९ ।।
           उपमाके द्वारा किसी वस्तुका आंशिक ज्ञान हो सकता है, पूर्णज्ञान नहीं । कवि-कोविद् उपमाका ही आश्रय लिया करते हैं । हनुमानजीकी महिमा अनिर्वचनीय है । अतः वाणीके द्वारा उसका वर्णन संभव नहीं ।। १५ ।।
            राजपदपर उसकी ही स्थिति है और उसका ही कंठ सुकंठ है, जिसके कंठपर सदैव श्रीरामनामका वास हो । यह कार्य हनुमानजीकी कृपासे ही संभव है । सुग्रीव बालिके भयसे व्याकुल रहता था और उसका सर्वस्व हरण कर लिया गया था । भगवान् श्रीरामने उसका राज्य उसे वापस दिलवा दिया तथा उसे अभय करा दिया । हनुमानजीने ही सुग्रीवकी मित्रता भगवान् रामसे करवाई ।। १६ ।।
            संसारमें रहकर मोक्ष प्राप्त करना ही दुर्गम कार्य है, जो आपकी कृपासे सुलभ है । आपका अनुग्रह न होनेपर सुगम कार्य भी दुर्गम प्रतीत होता है, परंतु सरल साधनसे जीवपर हनुमानजीकी कृपा शीघ्र हो जाती है ।। २० ।।
            संसारमें मनुष्यके लिए चार पुरुषार्थ हैं - अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष । भगवानके दरबारमें बडी भीड न हो, इसके लिए भक्तोंके तीन पुरुषार्थको हनुमानजीके द्वारपर ही पूरा कर देते हैं । अंतिम पुरुषार्थ, मोक्षप्राप्तिके अधिकारी हनुमानजीकी अनुमतिसे ही भगवानके दरबार में प्रवेश पाते हैं ।
           मुक्तिके ४ प्रकार हैं - सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य व सायुज्य । यहां सालोक्य मुक्तिसे अभिप्राय है ।। २१ ।।

         रोगके नाशके लिए बहुतसे साधन एवं औषधियां हैं । यहां रोगसे मुख्य तात्पर्य भवरोगसे है व पीडासे तात्पर्य तीनों तापों (दैहिक, दैविक, भौतिक) से है, जिसका शमन आपके स्मरणमात्रसे होता है ।
          हनुमानजीके स्मरणसे आरोग्य तथा निद्र्वंद्वता प्राप्त होती है ।। २५ ।।

          जो मनसे सोचते हैं, वही वाणीसे बोलते हैं तथा वही कर्म करते हैं - ऐसे महात्मागणको हनुमानजी संकटसे छुडाते हैं । जो मनमें कुछ सोचते हैं, वाणीसे कुछ दूसरी बात बोलते हैं तथा कर्म कुछ और करते हैं, वे दुरात्मा हैं । वे संकटसे नहीं छूटते ।। २६ ।।
            मनुष्यके जीवनमें प्रतिदिन-रात्रिमें चारों युग आते-जाते रहते हैं । इसकी अनुभूति हनुमानजीके द्वारा ही होती है या जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीया - चारों अवस्थामें भी आप ही द्रष्टा रूपसे सदैव उपस्थित रहते हैं ।। २९ ।।
            यहां भजनका मुख्य तात्पर्य सेवासे है । सेवा दो प्रकारकी होती है - सकाम व निष्काम । ईश्वरको प्राप्त करनेके लिए निष्काम और निःस्वार्थ सेवा करना आवश्यक है, जो हनुमानजी करते चले आ रहे हैं । अतः श्रीरामकी ऐसी सेवा करनी चाहिए, जैसी हनुमानजीने उनकी की ।। ३३ ।।
            भजन या सेवाका परम फल है हरिभक्तिकी प्राप्ति । यदि भक्तको पुनः जन्म लेना पडा, तो अवध आदि तीर्थों में जन्म लेकर प्रभुका परम भक्त बन जाता है ।। ३४ ।।
           जन्म मरण-यातनाका अंत अर्थात् भवबंधनसे छुटकारा परमात्म प्रभु ही करा सकते हैं । भगवान हनुमानजीके वशमें हैं । अतः हनुमानजी संपूर्ण संकट और पीडाओंको दूर करते हुए जन्म-मरणके बंधनसे मुक्त करानेमें पूर्ण समर्थ हैं ।। ३६ ।।
           गुरुदेव जैसे शिष्यकी धृष्टता आदिका ध्यान नहीं रखते और उसके कल्याणमें ही लगे रहते हैं (जैसे काकभुशुंडिके गुरु), उसी प्रकार आप भी मेरे ऊपर गुरुदेवकी ही भांति कृपा करें ।। ३७ ।।
           भक्तके हृदयमें भगवान रहते ही हैं । इसलिए भक्तको हृदयमें विराजमान करनेपर प्रभु स्वयं विराजमान हो जाते हैं । हनुमानजी भगवान रामके परमभक्त हैं । उनसे अंतमें यह प्रार्थना की गई है, कि प्रभुके साथ मेरे हृदयमें आप विराजमान हों ।
             बिना श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजीके हनुमानजीका स्थायी निवास संभव नहीं है । इन चारोंको हृदयमें बैठाने का तात्पर्य चारों पदार्थोंको एक साथ प्राप्त करनेका है । चारों पदार्थोंसे तात्पर्य ज्ञान (राम), विवेक (लक्ष्मण), शांति (सीताजी) एवं सत्संग (हनुमानजी) से
है ।
           सत्संगके द्वारा ही विवेक, ज्ञान एवं शांतिकी प्राप्ति होती है । यहां हनुमानजी सत्संगके प्रतीक है । अतः हनुमानजीकी आराधनासे सबकुछ प्राप्त हो सकता है ।

संकटनाशन स्तोत्र - नारद पुराण



प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्
भक्तावासं स्मरेनित्यम आयुष्कामार्थ सिध्दये ॥१॥
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्
तृतीयं कृष्णपिङगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम ॥२॥
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धुम्रवर्णं तथाषष्टम ॥३॥
नवमं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकम्
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम ॥४॥
द्वादशेतानि नामानि त्रिसंध्यं य: पठेन्नर:
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिध्दीकर प्रभो ॥५॥
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम ॥६॥
जपेद्गणपतिस्तोत्रं षडभिर्मासे फलं लभेत्
संवत्सरेण सिध्दीं च लभते नात्र संशय: ॥७॥
अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा य: समर्पयेत
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादत: ॥८॥

बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु - निराला

था यहाँ बहुत एकान्त बन्धु
नीरव रजनी सा शान्त बन्धु
दुःख की बदली सा क्लान्त बन्धु
नौका-विहार दिग्भ्रान्त बन्धु

तुम ले आये जलती मशाल
उर्जस्वित स्वर देदीप्य भाल
हे! कविता के भूधर विशाल
गर्जित था तुममें महाकाल

भाषा को दे नव-संस्कार
वर्जित-वंचित को दे प्रसार
कविता-नवीन का समाहार
करने में जीवन दिया वार

विस्मित है जग लख, महाप्राण!
अप्रतिहत प्रतिभा के प्रमाण
नर-पुंगव तुमने सहे बाण
निष्कवच और बिन सिरस्त्राण

अब श्रेय लूटने को अनेक
दादुर मण्डलियाँ रहीं टेक
कैसा था साहित्यिक विवेक
छिटके थे करके एक-एक

झेले थे कितने दाँव बन्धु
दृढ़ रहे तुम्हारे पाँव बन्धु
है, यह मुर्दों का गाँव बन्धु
बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु