Thursday, March 31, 2011

वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है


सुनते हैं कवि अपने युग का सच्चा प्रतिनिधि होता,

युग के हंसने पर कवि हंसता युग रोता कवि रोता,

कविता कवि के भाव जगत का चित्र हुआ करती है,
सच्चे कवि की कविता सच्चा मित्र हुआ करती है,

कविता वैभव के विलास में संयम सिखलाती है,
घोर निराशा में भी कविता आशा बन जाती है,

युग की सुप्त शिराओं में कविता शोणित भरती है,
वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है,

हृदय सुहाते गीत सुनाना कवि का धर्म नहीं है,
शासक को भी दिशा दिखाए कवि का कर्म यही है,

अपने घर में रहने वाला जब आतंक मचाए,
घर का मालिक ही घर में जब शरणार्थी बन जाए,

बहन बेटियों अबलाओं की लाज ना जब बच पाए,
मज़हब का उन्माद भाईचारे में आग लगाए,

जब सच को सच कहने का साहस समाप्त हो जाए,
दूभर हो जाए जीना विष पीकर मरना भाए,

तब कविता नूतन युग का निर्माण किया करती है,
निर्बल को बल प्राणहीन को त्राण दिया करती है,

कविता जन जन को विवेक की तुला दिया करती है,
कविता मन मन के भेदों को भुला दिया करती है,

'दिनकर' की है चाह कि हम सब भेदभाव को भूलें,
मात भारती की गरिमा भी उच्च शिखर को छू ले।

कविः डा वागीश दिनकर

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