Saturday, March 5, 2011

एक बेनाम महबूब के नाम



चाहता हूँ कि तेरा रूप मेरी चाह में हो
तेरी हर साँस मेरी साँस की पनाह में हो

मेरे महबूब तेरा ख़ुद का ज़िस्म न हो
मेरे एहसास की मूरत कोई तिलिस्म न हो

ढूँढता फिरता हूँ हर सिम्त भुला के ख़ुद को
अपनी पोशीदा रिहाइश का पता दे मुझको

तुझसे मिलने की क़सम मैंने नहीं तोड़ी है
दिल ने उम्मीद बहरहाल नहीं छोड़ी है

तुझको पाने का अभी मुझको इख़्तियार नहीं
पर मेरा इश्क़ कोई रेत की दीवार नहीं

बावफ़ा अब भी हूँ पर मेरी कहानी है अलग
मेरी आँखें हैं अलग आँख का पानी है अलग

अब न मज़बूरी-ओ-दूरी का गिला कर मुझसे
यूँ नहीं है तो तसव्वुर में मिला कर मुझसे

मेरे महबूब तू इक रोज़ इधर आयेगा
हाँ मगर वक़्त का दरिया तो गुज़र जायेगा

तब न शाख़ों पे कहीं गुल नही पत्ते होंगे
जा-ब-जा बिखरे हुये बर्फ़ के छत्ते होंगे

एक मनहूस सफ़ेदी यहाँ फैली होगी
चाँदनी अपनी ही परछाई से मैली होगी

तब भी ज़ज़्बात पे हालात का पहरा होगा
वक़्त इक फीकी हँसी पर कहीं ठहरा होगा

पस्त-कदमों से तू चलता हुआ जब आयेगा
सर्द-तूफ़ान के झोकों से सिहर जायेगा

मेरे अल्फ़ाज़ में तब भी यही नरमी होगी
और मेरे कोट में अहसास की गरमी होगी

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