Tuesday, December 7, 2010

लंगड़ी

सबको राम राम ....
बहुत से दृश्य दिन भर में आँखों के सामने से गुजरते है| कभी किसी पर मौके पर हम उस  दृश्य से जुड़ जाते है और तब ही कुछ कहने, करने या लिखने की इच्छा जगती है| ऐसा ही एक दिन हुआ ... थोडा ही लिखा है मन और  भी लिखूं पर जी बहुत भारी होकर कलम को आगे नहीं बढने देता|
लंगड़ी

वह चलती है  घुटने पर हाथ धरकर ,
मैं हर माध्यम से उससे अपरिचित हूँ ,
उसे चलते-फिरते दृश्यमात्र की भांति जाना ,
सहसा उसके बचपन की कल्पना जागी ,
उसके सहपाठी लंगड़ी-लंगड़ी चिढाते होंगे,
माता-पिता को कोष होगा या उस ईश्वर को,
मेरा  मन इस कल्पना से द्रवित हो गया,
लंगड़ी का दंश वह सह रही है,
यह सोच मन करुणामय हो गया,
ऐ बेटी क्षमा चाहता हूँ  तुझसे,
तेरी इस अवस्था पर मात्र रो रहा हूँ,
संभवतः हो तूने निष्ठुर सच को अपनाकर,
जीना सिख लिया हो,
मगर मैं रोऊंगा आज जी भर,
सविनय प्रार्थना करूँगा,
उन श्रीराम से जिन्होंने सबको बनाया है| 


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