Wednesday, January 19, 2011

राजा रानी बैठ झरोखे



राजा रानी बैठ झरोखे
मुजरा लेते हैं।
लोहे का फाटक है
बाहर पहरेदारी है।
आदमखोर 'बाघ'
आखेटक की लाचारी है
राजा उन्हें दुधमुँहों वाला
चारा देते हैं।
रानी अपने केश,
नहीं धोती है, पानी से।
'गिलोटिन' फरमान लिए
आया रजधानी से।
नाविक डरे डरे बैठे हैं
नाव, न, खेते हैं।
राजा की आदतें न बदलीं
राजा बदल रहे।
जो सिंहासन चढ़ा उसी को
'बघ नख' निकल रहे।
राजा के, 'मेमने' नहीं,
'भेड़िए', चहेते हैं।

बेचैनी का मौर



बेचैनी का मौर समय के
माथे पर।
सूरज, रात खरीद रहा
बाज़ारों में।
कंधा शामिल होता है,
हत्यारों में।
'थाली में विष होगा'
यह फेरों का डर।
बारूदी सुरंग का
खतरा है मन में।
'समय' खड़ा है कवच
ओढ़कर आँगन में।
उबल रहा है बड़नावल
सबके भीतर।
लकवाग्रस्त उमर
लेटी है बिस्तर पर।
बेटा, बहु, चिकित्सक,
सोचें, तेज ज़हर।
घातों में दामाद, बेटियों
वाला, घऱ।

ऐसी पछुआ हवा चली



ऐसी पछुआ चली, इंद्रियाँ
अंतर्मुख हुईं।
'बाजों के चंगुल में चिड़िया'
अद्भुत दृश्य लगे।
'आँख बचाकर' खून लाँघकर
भाई बंधु भगे।
बाढ़ देखने उड़ीं, सुरक्षित
आँखें, सुखी हुईं।
पाठ हुई, हर खबर भयानक,
अब अखबारों में।
अस्पताल अंधे होकर
चलते गलियारों में।
नोच रहे हैं गिद्ध, अधमरी
लाशें, रखीं हुईं।
ठठरी के कंधों पर
राजा बैठे रक्त सने।
चलो कहीं 'खा' 'पीकर'
सोयें, कौन कबीर बने।
कालजयी कविताएँ भी अब
सूरजमुखी हुईं।

Chhote Shahar ki Yaaden

लोग

लोग
 
सोन हँसी हँसते हैं लोग
हँस हँसकर डसते हैं लोग

रस की धारा
झरती है विष पिये अधरों से
बिंध जाती भोली आँखें विष कन्या की नज़रों से
नागफनी की बाहों में
हँस हँसकर कसते हैं लोग

चुन दिये गये हैं
जो लोग नगरों की दीवारों में
खोज रहे हैं अपने को वे ताज़ा अखबारों में
अपने ही बुने जाल में
हँस हँसकर फँसते हैं लोग

जलते जंगल
जैसे देश और कत्लगाह से नगर
पागलखानों सी बस्ती चीरफाड़ जैसे घर
भूतों के महलों में
हँस हँसकर फँसते हैं लोग

रौंद रहे हैं
अपनो को सोये सोये से चलते से
भाग रहे पानी की ओर आग जली में जलते से
भीड़ों के इस दलदल में
हँस हँसकर धँसते हैं लोग

हम तुम वे
और ये सभी लगते कितने प्यारे लोग
पर कितने तीखे नाखून रखते हैं ये सारे लोग
अपनी खूनी दाढ़ी में
हँस हँस कर ग्रसते हैं लोग

-- शंभुनाथ सिंह

Neend Bhi Na Aaee (Tuktak)

शीत लहर

 सप्ताह की कविता  शीर्षक : शीत लहर  रचनाकार: विजेन्द्र

शीत लहर चलती है पूरे उत्तर भारत में
ठिठुर रहे जन-- जिनके वसन नहीं हैं तन पर
बंदी हैं अपने कालचक्र में, फिर भी वे तन कर
खड़े रहे अपने ही बल पर, विचलित आरत में

होते हैं, रहते सावधान जीवन जीना है
उनको अपने से ही, ऐसी व्याकुलता जगती
है मन में, कहाँ खड़े हों पल भर धरती तपती
है, जाड़े से भी बहतेरे मरते हैं, पीना है

अमृत जल-- ऐसा सौभाग्य कहाँ मिलता है
भद्रलोक को सुविधाएँ हैं सारी, कहाँ सताता
पाला उनको, दाता उनका है, शास्त्र बताता
है-- खरपतवारों के मध्य फूल कहाँ खिलता है ।

फिर हुई घोषणा गलन अभी और बढ़ेगी
हड्डी-पसली टूटेगी निर्मम खाल कढ़ेगी ।

Tuesday, January 18, 2011

एक तिनका



मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा ।

मै झिझक उठा ,हुआ बैचैन सा ,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी ।
मूंठ देने लोग कपडे की लगे ,
ऐंठ बेचारी दबे पांवों भगी ।

जब किसी ढब से निकल गया तिनका ,
तब 'समझ ' ने यों मुझे ताने दिए ,
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा ,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए

ढब- तरीका
कवि
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


नीचे के प्लेयर से यह कविता सुनिए-


चमगादड़




चूहे सा होता चमगादड़
लगे पीठ से होते डैने,
चोंच न होती उसके मुहँ में
दाँत बड़े होते हैं पैने।

उसके डैने ऐसे होते
जैसे आधा छोटा छाता,
उसकी टांगें ऐसी होतीं
जिन पर बैठ नहीं वह पाता

टांगों में कटिया सी होती
अटका जिन्हें लटक वह जाता,
उड़ते-उड़ते, उड़ते कीड़ों
और मकोड़ों को वह खाता

रात अँधेरी जब कट जाती
जब उजियाला सब पर छाता,
किसी अँधेरी जगह लटक कर
उल्टा चमगादड़ सो जाता

--हरिवंश राय बच्चन

बगुले और मछलियाँ






बगुलों ने ऊपर से देखा
नीचे फैला छिछला पानी
उस पानी में कई मछलियाँ
तिरती-फिरती थी मनमानी


सातों अपने पर फडकाते
उस पानी पर उतर पड़े
अपनी लम्बी -लम्बी टांगों
पर सातों हो गए खड़े

खड़े हो गए सातों बगुले
पानी बीच लगाकर ध्यान
कौन खड़ा है घात लगाए
नहीं मछलियां पायीं जान

तिरती -फिरती हुई मछलियां
ज्यों ही पहुंची उनके पास ,
उन सातों ने सात मछलियां
अपनी चोंचों में ली फाँस

पर फड़काकर ऊपर उठकर
उड़े बनाते एक लकीर
सातों बगुले ऐसे जैसे
आसमान में छूटा तीर

हरिवंशराय बच्चन

इस कविता को आप नीलम आंटी की प्यारी आवाज़ में सुन भी सकते हैं। नीचे का प्लेयर चलायें।


मेरा बचपन और वो मेरा गरीब दोस्त


कुछ चीजीं हमेशा अच्छी लगती हैं ...जैसे मम्मी का प्यार, भाई बहन के साथ नोंक झोंक.... और जैसे बचपन की यादें ...जब याद आ जाती हैं तो आये हाय ....यूँ लगता है मानो...बचपन सामने खडा हो गया हो आकर...जैसे बारिश हो रही हो और वो सामने से बुला रहा हो ...कि आओ चलो भीगें चलकर ...कागज़ की एक नाव तुम बनाना और एक मैं बनाऊंगा ...देखें किसकी ज्यादा देर तैरती है .... हाँ सचमुच कभी कभी ऐसा ही तो होता है ....

कभी कभी तो लगता है कि जैसे बचपन को खोकर बहुत बड़ी गलती की ...क्यूँ भला हम इतनी जल्दी बड़े हो गए ...और जब छोटे थे तो सोचा करते थे बड़ी कब हम बड़े होंगे ...उफ़ कैसे खयाली पुलाव बनाते थे

और वो जब माँ टिफिन में खाना रखकर स्कूल भेजा करती थी ...तो कैसे हम दोस्त लोग अपनी अपनी टेबल के नीचे ही टिफिन खोलकर ...एक एक टुकडा खाते थे ...बड़ा मज़ा आता था ...आधा तो इंटरवल के आने से पहले ही चट कर जाते थे .....अब याद आता है तो हंसी आती है ....कि बचपन भी क्या अजीब चीज़ थी ....क्या दौर था ...क्या आजादी थी ...खुलकर जीने की ... बस स्कूल जाओ ...स्कूल से आओ ...और माँ के आँचल तले जिंदगी बिताओ ....अब तो माँ का चेहरा देखे बिना भी कभी कभी महीनो बीत जाते हैं .... कभी वो दिन भी हुआ करते थे ...जब सुबह शाम हम बस फरमाइशें करते रहते थे ...और माँ हमारी हर फरमाइश पूरी करती रहती थी ... 

एक दोस्त हुआ करता था मेरा ....मेरे बचपन का हमसफ़र....दिल का साफ़ ....बिलकुल नेक और शरीफ .... हम साथ साथ स्कूल में रहते और साथ ही खाना खाते .... बहुत चाहता था मुझे ...और हम मैदान में क्रिकेट भी साथ खेलते थे ....बहुत अच्छा लगता था उसके साथ रहना ...हम बिल्कुल पक्के दोस्त हुआ करते थे .... कभी कभी हम आपस में होम वर्क भी शेयर किया करते थे....और खाना तो कौन किसका खाता था पता ही नहीं चलता ..... पर जब हम पाँचवी से छटवीं क्लास में पहुंचे तो कुछ दिन तक तो वो साथ रहा 

लेकिन कुछ रोज़ बाद उसका आना बंद हो गया ....मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था ...उसकी बहुत याद आती थी ... कई दिनों तक मैं उदास रहा ...वो नहीं आया ...एक रोज़ मैं घुमते घामते ....पूंछते पांछ्ते उसके घर पहुँच गया ...वो मुझे देख कर बहुत खुश हुआ ...पर उसके घर के हालात अच्छे नहीं थे 

उसने बताया कि अब वो स्कूल नहीं आ सकेगा ...अब वो अपने पिताजी के साथ सिनेमा हॉल जाया करेगा ...वही नौकरी करेगा ....उसकी इस हालत पर मुझे अच्छा नहीं लग रहा था ...दुःख हो रहा था ....उसका चेहरा बहुत मायूस था ...एक दुःख साफ़ झलक रहा था कि अब वो पढ़ नहीं सकेगा .....उस रोज़ मैं मायूस और सुस्त क़दमों से घर वापस लौटा ....कई दिनों तक मेरा कोई दोस्त नहीं बना ...हमेशा सोचता रहता कि कितना होशियार था वो ..पर गरीबी ने उसे पढने नहीं दिया ....और शायद उसके बाप ने भी ....मैं जानता था कि वो भी बड़े होकर सफल और बड़ा आदमी बनता ....लेकिन अब उसे वहां सिनेमा हॉल में ड्यूटी बजानी पड़ेगी .....

कई रोज़ बाद मैं उसके घर फिर गया पर वो मिला नहीं ...वो ड्यूटी पर गया हुआ था ...मैं जब भी उससे मिलने जाता वो न मिलता ...उसके ड्यूटी का टाइम बदल जाता था ....मैं हर बार उदास होकर वापस लौटा ...फिर धीरे धीरे मैंने जाना बंद ही कर दिया ....पर जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ ...मैं यही सोचता कि कब गरीबी कम होगी ..कब लोग शिक्षित हो सकेंगे ..भर पेट खाना खा सकेंगे ....कब उस मेरे दोस्त की तरह के बच्चे स्कूल में रहकर पूरी पढाई कर सकेंगे ....मगर अफ़सोस कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया ...आज भी जब देखता हूँ तो कोई न कोई बच्चा काम करते हुए मिल जाता है ....

उसके लिए बचपन की यादें क्या होती होंगी ...दिल सोचकर भी घबराता है ....कभी कभी सोचते हुए पलकें भी गीली हो जाती हैं ...आज जब मैं अपनी माँ से दूर हूँ ....उनका चेहरा तक देखने को नसीब नहीं होता ...जब तब 1-2 महीने बाद घर जा पाता हूँ ...तब लगता है कि इंसान और इंसान की मजबूरियाँ भी बड़ी अजीब चीज़ होती हैं .... जिंदगी कब किससे क्या क्या कराये पता नहीं चलता .... 

अभी अभी ऐसा लगता है कि जैसे बारिश हो रही हो और वो मेरा दोस्त बारिश में भीगता हुआ मुझे हाँथ देकर बुला रहा हो ...कि आ चल खेलते हैं ...चल एक दौड़ लगाते हैं .....मगर फिर दूजी ही ओर वो बारिश अजीब सी लगती है...मेरी पलकें बिना बारिश में जाए भी गीली हो जाती हैं