Wednesday, January 19, 2011

लोग

लोग
 
सोन हँसी हँसते हैं लोग
हँस हँसकर डसते हैं लोग

रस की धारा
झरती है विष पिये अधरों से
बिंध जाती भोली आँखें विष कन्या की नज़रों से
नागफनी की बाहों में
हँस हँसकर कसते हैं लोग

चुन दिये गये हैं
जो लोग नगरों की दीवारों में
खोज रहे हैं अपने को वे ताज़ा अखबारों में
अपने ही बुने जाल में
हँस हँसकर फँसते हैं लोग

जलते जंगल
जैसे देश और कत्लगाह से नगर
पागलखानों सी बस्ती चीरफाड़ जैसे घर
भूतों के महलों में
हँस हँसकर फँसते हैं लोग

रौंद रहे हैं
अपनो को सोये सोये से चलते से
भाग रहे पानी की ओर आग जली में जलते से
भीड़ों के इस दलदल में
हँस हँसकर धँसते हैं लोग

हम तुम वे
और ये सभी लगते कितने प्यारे लोग
पर कितने तीखे नाखून रखते हैं ये सारे लोग
अपनी खूनी दाढ़ी में
हँस हँस कर ग्रसते हैं लोग

-- शंभुनाथ सिंह

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