Tuesday, December 21, 2010

हम भी वापस जाएँगे

आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में,
निर्जन वन के पीछे वाली,
ऊँची एक पहाड़ी पर,
एक सुनहरी सी गौरैया,
अपने पंखों को फैलाकर,
गुमसुम बैठी सोच रही थी,
कल फिर मैं उड़ जाऊँगी,
पार करूँगी इस जंगल को.
वहाँ दूर जो महके जल की,
शीतल एक तलैया है,
उसका थोड़ा पानी पीकर,
पश्चिम को मुड़ जाऊँगी,
फिर वापस ना आऊँगी,
लेकिन पर्वत यहीं रहेगा,
मेरे सारे संगी साथी,
पत्ते शाखें और गिलहरी,
मिट्टी की यह सोंधी खुशबू,
छोड़ जाऊँगी अपने पीछे ....,
क्यों न इस ऊँचे पर्वत को,
अपने साथ उड़ा ले जाऊँ।

और चोंच में मिट्टी भरकर,
थोड़ी दूर उड़ी फिर वापस,
आ टीले पर बैठ गई .....।
हम भी उड़ने की चाहत में,
कितना कुछ तज आए हैं,
यादों की मिट्टी से आखिर,
कब तक दिल बहलाएँगे,
वह दिन आएगा जब वापस,
फिर पर्वत को जाएँगे,
आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में।

Sales ka Banda

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...
Zindagi se hara hua hai ....

Par "customers" se haar nahi maanta,
Apne presentation ki ek line isey rati
hui hai....

par aaj kaun se rang ke moje pehne hain,
ye nahi jaanta,

Din par din ek excel file banata ja raha hai..

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...

Das hazaar customers mein se ache
Customer dhoond lete hain lekin ,

Majboor dost ki ankhhon ki nami
dikhayi nahi deti,

PC pe hazzar windows khuli hain,
Par dil ki khidki pe koi dastak sunayi nahi deti...

Saturday-Sunday nahata nahi ,
Weekdays ko naha raha hai...

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...

Reporting karte karte pata hi nahi chala,
"Boss" kab maa baap se bhi bade ho gaye,

Kitabon me gulab rakhne wala,
Cigrette me kho gaya,

Weekends pe daroo pee ke jo jashn mana raha hai ,

Wo dekho ek sales ka Banda ja raha hai ...................................

Tuesday, December 7, 2010

लंगड़ी

सबको राम राम ....
बहुत से दृश्य दिन भर में आँखों के सामने से गुजरते है| कभी किसी पर मौके पर हम उस  दृश्य से जुड़ जाते है और तब ही कुछ कहने, करने या लिखने की इच्छा जगती है| ऐसा ही एक दिन हुआ ... थोडा ही लिखा है मन और  भी लिखूं पर जी बहुत भारी होकर कलम को आगे नहीं बढने देता|
लंगड़ी

वह चलती है  घुटने पर हाथ धरकर ,
मैं हर माध्यम से उससे अपरिचित हूँ ,
उसे चलते-फिरते दृश्यमात्र की भांति जाना ,
सहसा उसके बचपन की कल्पना जागी ,
उसके सहपाठी लंगड़ी-लंगड़ी चिढाते होंगे,
माता-पिता को कोष होगा या उस ईश्वर को,
मेरा  मन इस कल्पना से द्रवित हो गया,
लंगड़ी का दंश वह सह रही है,
यह सोच मन करुणामय हो गया,
ऐ बेटी क्षमा चाहता हूँ  तुझसे,
तेरी इस अवस्था पर मात्र रो रहा हूँ,
संभवतः हो तूने निष्ठुर सच को अपनाकर,
जीना सिख लिया हो,
मगर मैं रोऊंगा आज जी भर,
सविनय प्रार्थना करूँगा,
उन श्रीराम से जिन्होंने सबको बनाया है| 


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Saturday, November 13, 2010

मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

-सुभद्राकुमारी चौहान

रात आधी खींच कर मेरी हथेली

रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दूँ आग इस संसार में
है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
फिर न आया वक्त वैसा
फिर न मौका उस तरह का
फिर न लौटा चाँद निर्मम।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली

- बच्चन

अँधेरे का दीपक



है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था ,
भावना के हाथ से जिसमें वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम उशा की किरण की लालिमासी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनो हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या घड़ी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बातसे मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता पर समय की मुसकुराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिसमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबरअवनि को मत्तता के गीत गागा,
अन्त उनका हो गया तो मन बहलने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय वे साथी कि चुम्बक लौहसे जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
किन्तु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

- बच्चन

जीवन की आपाधापी में

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

-बच्चन

प्रतीक्षा

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?

मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीण पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?

बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

- बच्चन

यात्रा और यात्री

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता,
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है;
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए,
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना,
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है;
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

- बच्चन

साजन आए, सावन आया

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव गई मुझपर गहरा,

है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

तुफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,

झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,

मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ' फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

रोमांच हुआ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,

सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

- हरिवंशराय बच्चन

निर्माण

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,

रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,

रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,

हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगा‌ए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;

बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;

एक चिड़िया चोंच में तिनका
लि‌ए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!

नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

-हरिवंशराय बच्चन

जंगल गाथा

एक नन्हा मेमना
और उसकी मां बकरी,
जा रहे थे जंगल में
राह थी संकरी।
अचानक सामने से
आ गया एक शेर,
लेकिन अब तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था
कोई भी रास्ता,
बकरी और मेमने
की हालत खस्ता।
उधर शेर के कदम
धरती नापें,
इधर ये दोनों
थर-थर कापें।
अब तो शेर आ गया
एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे
बच्चे को थामने।
छिटककर बोला
बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें
खा जाओगे
एकदम कच्चा?
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया।
बोला-
हे बकरी - कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीघार्यु भव!
चिरायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर,
कि अब नहीं होगा कोई अंधेरा
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हंसते-हंसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!
इतना कहकर
शेर कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खानेवाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आनेवाला है।
 


पानी से निकलकर
मगरमच्छ किनारे पर आया,
इशारे से
बंदर को बुलाया.
बंदर गुर्राया-
खों खों, क्यों,
तुम्हारी नजर में तो
मेरा कलेजा है?

मगर्मच्छ बोला-
नहीं नहीं, तुम्हारी भाभी ने
खास तुम्हारे लिये
सिंघाड़े का अचार भेजा है.

बंदर ने सोचा
ये क्या घोटाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आने वाला है.
लेकिन प्रकट में बोला-
वाह!
अचार, वो भी सिंघाड़े का,
यानि तालाब के कबाड़े का!
बड़ी ही दयावान
तुम्हारी मादा है,
लगता है शेर के खिलाफ़
चुनाव लड़ने का इरादा है.

कैसे जाना, कैसे जाना?
ऐसे जाना, ऐसे जाना
कि आजकल
भ्रष्टाचार की नदी में
नहाने के बाद
जिसकी भी छवि स्वच्छ है,
वही तो मगरमच्छ है. 

तमाशा



अब मै आपको कोई कविता नहीं सुनाता
एक तमाशा दिखाता हूं
और आपके सामने एक मजमा लगाता हूँ।
ये तमाश कविता से बहूत दूर है,
दिखाऊं साब, मंजूर है ?


कविता सुनने वालों
ये मत कहना कि कवि होकर
मजमा लगा रखा है
और किवता सुनाने के बजाय
यों ही बहला रहा है।
दरअसल, एक तो पापी पेट का सवाल है
और दूसरे, देश का दोस्तो ये हाल है
कि कवि अब फिर से एक बार
मजमा लगाने को मजबूर है,
तो दिखाऊं साब, मंजूर है?

तमाशा देखना मंजूर
थैक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने 'हां' कही बहुत अच्छा किया।
आप अच्छे लोग हैं, बहुत अच्छे श्रोता हैं
और बाइ द वे तमाशबीन भी खूब हैं,
देखिए मेरे हाथ में ये तीन टैस्ट टयूब हैं।

कहां हैं?
गौर से देखिए,ध्यान से देखिए
मन की आंखों से, कल्पना की पांखों से देखिए।
देखिए यहां हैं।
क्या कहा, उंगलियां हैं?
नही - नहीं टैस्ट टयूब हैं
इन्हें उंगलियां मत कहिए,
तमाशा देखते वक्त दिरयादिल रिहए।
आप मेरे श्रोता हैं, रहनुमा हैं, सुहाग हैं
मेरे महबूब हैं,
अब बताइए ये क्या हैं
तीन...टैस्ट टयूब हैं।

वैरी गुड, थैंक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने उंगलियों को टैस्ट टयूब बताया
बहुत अच्छा किया
अब बताइए इनमें क्या है?
बताइए - बताइए इनमें क्या है?
अरे, आपको क्या हो गया
टैस्ट टयूब दिखती है
अंदर का माल नहीं दिखता है,
आपके भोलेपन में भी अधिकता है।

खैर छोडि़ए
ए भाईसाहब!
अपना ध्यान इधर मोडि़ए।
चलिए, मुद्दे पर आता हूं,
मैं ही बताता हूं
हां भाईसाहब, हां बिरादर,
हां माई बाप हां गाड फादर! इनमें खून हैं।
पहले में हिंदू का
दूसरे में मुसलमान का
तीसरे में सिख का खून है,
हिन्दू मुसलमान में तो आजकल
बड़ा ही जुनून हैं।
आप में से जो भी इनका फ़र्क बताएगा
मेरा आज का पारिश्रमिक ले जाएगा।
हर किसी को बोलने की आज़ादी है,
खरा खेल, फ़र्क बताएगा
न जालसाज़ी है न धोखा है,
ले जाइए पूरा पैसा ले जाइए जनाब, मौका है।

फ़र्क बताइए,
तीनों में अंतर क्या है अपना तर्क् बताइए
और एक किव का पारिश्रमिक ले जाइए।
आप बताइए नीली कमीज़ वाले साब,
सफेद कुर्ते वाले जनाब।
आप बताइए? जिनकी इतनी लंब दाढी है
संचालक जी आप बताइए
आपके भरोसे हमारी गाडी है
इनके मुँह पर नहीं, पेट में दाढी है

ओ श्रीमानजी,आपका ध्यान किधर है,
इधर देखिए तमाशे वाला तो इधर है।
हाँ, तो दोस्तो!
फ़र्क् है, जरूर इनमें फकर् है,
तभी तो समाज का बेङागर्क है।
रगों में शांत नहीं रहता है,
उबलता है, धधकता है, फूट पड़ता है
सड़कों पर बहता है।
फ़र्क नहीं होता तो दंगे-फसाद नहीं होते,
फकर् नहीं होता तो खून-खराबों के बाद
लोग नहीं रोते।
अंतर नहीं होता तो गर्म हवाएं नहीं होतीं,
अंतर नहीं होता तो अचानक विधवाएं नहीं होतीं।
देश में चारों तरफ
हत्याओं का मानसून है,
ओलों की जगह हिड्डयां हैं
पानी की जगह खून है।
फसाद करने वाले ही बताएं
अगर उनमें थोड़ सी हया है,
क्या उन्हें सांप सूंघ गया है?

और ये तो मैने आपको
पहले ही बता दिया
कि पहली में हिंदू का,
दूसरी में मुसलमान का
और तीसरी में सिख का खून है
अगर उलटा बता देता
तो कैसे पता लगाते
कौन-सा किसका है, कैसे बताते?

और दोस्तों, डर मत जाना
अगर डरा दूँ, मान लो मैं इन्हें
किसी मंदिर, मस्जिद
या गुरूद्वारे के सामने गिरा दं;,
तो है कोई माई का लाल
जो फर्क बता दे,
है कोई पंडित, है कोई मुल्ला, है कोई ग्रंथी
जो ग्रंथियां सुलझा दे?
फर्श पर बिख्रा पङा है, पहचान बताइए,
कौन माखनलाल, कौन सिंह, कौन खान बताइए।

अभी फोरेन्सिक विभाग वाले आएंगे,
जमे हुए खून को नाखून से हटाएंगे।
नमूने ले जाएंगे
इसका ग्रूप 'ओ', इसका 'बी'
और उसक 'बी प्लस' बताएंगे
लेकिन ये बताना क्या उन्के बस मे है
कि कौन-सा खून किसका है?
कौम की पहचान बताने वाला
कोई मैक्रोस्कोप है? वे नहीं बना सकते
लेकिन मुझे तो आपसे होप है
बताइए, बताइए, और एक कवि का
पारिश्रमिक ले जाइए।

अब मैं इन परखनलियों को
स्टोव पर रखता हूँ, उबाल आएगा,
खून खौलेगा, बबाल आएगा।
हां, भाईजान
नीचे से गमीर् दो न तो खून खौलता है
किसी का खून सूखता है, किसीका जलता है
किसी का खून थम जाता है,
किसी का खून जम जाता है।
अगर ये टेस्ट-टयूब फ्रिज में रख दूँ
तो खून जम जाएगा,
सींक डालकर निकालूं तो आइस्क्रीम का मजा आएगा
आप खाएंगे ये आइस्क्रीम
आप खाएंगे,
आप खाएंगी बहन जी
भाईसाहब आप खाएंगे?
मुझे मालूम है कि आप नहीं खा सकते
क्योंकि इंसान हैं,
लेकिन हमारे मुल्क में कुछ हैवान हैं।
कुछ दिरंदे हैं,
जिनके बस खून के ही धंधे हैं।
मजहब के नाम पे, धर्म के नाम पे
वो खाते हैं ये आइस्क्रीम,
भाईसाहब बड़े मज़े से खाते हैँ
और अपनी हवस के लिए
आदमी-से-आदमी को लड़ाते हैं।

इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं,
इन्हें मीठी लोरियों का सुर नहीं भाता है।
मांग के सिन्दूर से इन्हें कोई मतलब नहीं
कलाई की चूडि़यों से इनका नहीं नाता है।
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं।
अरे गुरू सबका, गॉड सबका, खुदा सबका
और सबका विधाता है,
लेकिन इन्हें तो अलगाव ही सुहाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर
तरस नहीं आता है।
मस्जिद के आगे टूटी हुई चप्पलें
मन्दिर के आगे बच्चों के बस्ते
गली गली में बम और गोले
कोई इन्हें क्या बोले,
इनके सामने शासन भी सिर झुकाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता है।

हां तो भाईसाहब!
कोई धोती पहनता है, कोई पायजामा
किसी के पास पतलून है,
लेकिन हर किसी के अंदर वही खून है।
साड़ी में मां जी, सलवार में बहन जी
बुर्खे में खातून हैं,
सबके अन्दर वही खून है,
तो क्यों अलग विधेयक हैं?
क्यों अलग कानून हैं?

खैर छोङिए, आप तो खून का फर्क बताइए
अंतर क्या है अपना तर्क् बताइए।
क्या पहला पीला, दूसरा हरा, तीसरा नीला है?
जिससे पूछो यही कहता है
कि सबके अंदर वही लाल रंग बहता है

और यही इस तमाशे की टेक है,
कि रगों में बहता हो, या सङकों पर बहता हो
लहू का रंग एक है।
फर्क सिर्फ इतना है
कि अलग-अलग टैस्ट-टयूब में हैं;,
अंतर खून में नहीं है, मज़हबी मंसूबों में हैं।
मजहब जात, बिरादरी
और खानदान भूल जाएं
खूनदान पहचानें कि किस खूनदान के हैं,
इंसान के हैं कि हैवान के हैं?
और इस तमाशे वाले की
अंतिम इच्छा यही है कि
खून सङकों पर न बहे,
वह तो धमनियों में दौड़े
और रगों में रहे।
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे।

पोल-खोलक यंत्र



ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
....इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।

और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा...भी....जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्‌
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभीजी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।

लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।

एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।

ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
- वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
- और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।

ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!

बताइए अब क्या करना है



कि बौड़म जी ने एक ही शब्द के जरिए
पिछले पांच दशकों की
झनझनाती हुई झांकी दिखाई।
पहले सदाचरण
फिर आचरण
फिर चरण
फिर रण
और फिर न !
यही तो है पांच दशकों का सफ़र न !

मैंने पूछा-
बौड़म जी, बताइए अब क्या करना है ?

वे बोले-
करना क्या है
इस बचे हुए शून्य में
रंग भरना है।
और ये काम
हम तुम नहीं करेंगे,
इस शून्य में रंग तो
अगले दशक के
बच्चे ही भरेंगे।

आलपिन कांड

बंधुओ, उस बढ़ई ने
चक्कू तो ख़ैर नहीं लगाया
पर आलपिनें लगाने से
बाज़ नहीं आया।
ऊपर चिकनी-चिकनी रैक्सीन
अंदर ढेर सारे आलपीन।

तैयार कुर्सी
नेताजी से पहले दफ़्तर में आ गई,
नेताजी आए
तो देखते ही भा गई।
और,
बैठने से पहले
एक ठसक, एक शान के साथ
मुस्कान बिखेरते हुए
उन्होंने टोपी संभालकर
मालाएं उतारीं,
गुलाब की कुछ पत्तियां भी
कुर्ते से झाड़ीं,
फिर गहरी उसांस लेकर
चैन की सांस लेकर
कुर्सी सरकाई
और भाई, बैठ गए।
बैठते ही ऐंठ गए।
दबी हुई चीख़ निकली, सह गए
पर बैठे-के-बैठे ही रह गए।

उठने की कोशिश की
तो साथ में कुर्सी उठ आई
उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-
किसने बनाई है?

चपरासी ने पूछा- क्या?

क्या के बच्चे! कुर्सी!
क्या तेरी शामत आई है?
जाओ फ़ौरन उस बढ़ई को बुलाओ।

बढ़ई बोला-
सर मेरी क्या ग़लती है
यहां तो ठेकेदार साब की चलती है।

उन्होंने कहा-
कुर्सियों में वेस्ट भर दो
सो भर दी
कुर्सी आलपिनों से लबरेज़ कर दी।
मैंने देखा कि आपके दफ़्तर में
काग़ज़ बिखरे पड़े रहते हैं
कोई भी उनमें
आलपिनें नहीं लगाता है
प्रत्येक बाबू
दिन में कम-से-कम
डेढ़ सौ आलपिनें नीचे गिराता है।
और बाबूजी,
नीचे गिरने के बाद तो
हर चीज़ वेस्ट हो जाती है
कुर्सियों में भरने के ही काम आती है।
तो हुज़ूर,
उसी को सज़ा दें
जिसका हो कुसूर।
ठेकेदार साब को बुलाएं
वे ही आपको समझाएं।
अब ठेकेदार बुलवाया गया,
सारा माजरा समझाया गया।
ठेकेदार बोला-
बढ़ई इज़ सेइंग वैरी करैक्ट सर!
हिज़ ड्यूटी इज़ ऐब्सोल्यूटली
परफ़ैक्ट सर!
सरकारी आदेश है
कि सरकारी सम्पत्ति का सदुपयोग करो
इसीलिए हम बढ़ई को बोला
कि वेस्ट भरो।
ब्लंडर मिस्टेक तो आलपिन कंपनी के
प्रोपराइटर का है
जिसने वेस्ट जैसा चीज़ को
इतना नुकीली बनाया
और आपको
धरातल पे कष्ट पहुंचाया।
वैरी वैरी सॉरी सर।

अब बुलवाया गया
आलपिन कंपनी का प्रोपराइटर
पहले तो वो घबराया
समझ गया तो मुस्कुराया।
बोला-
श्रीमान,
मशीन अगर इंडियन होती
तो आपकी हालत ढीली न होती,
क्योंकि
पिन इतनी नुकीली न होती।
पर हमारी मशीनें तो
अमरीका से आती हैं
और वे आलपिनों को
बहुत ही नुकीला बनाती हैं।
अचानक आलपिन कंपनी के
मालिक ने सोचा
अब ये अमरीका से
किसे बुलवाएंगे
ज़ाहिर है मेरी ही
चटनी बनवाएंगे।
इसलिए बात बदल दी और
अमरीका से भिलाई की तरफ
डायवर्ट कर दी-

ऊँचाई

ऊँचाई

ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिल-खिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।

ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।

- अटल बिहारी वाजपेयी

था तुम्हें मैंने रुलाया

था तुम्हें मैंने रुलाया

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर -
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

Friday, November 12, 2010

Kaha rahengi Chidiya

 
 
कहाँ रहेगी चिड़िया ? 
आँधी आई जोर शोर से
डाली टूटी है झकोर से
उड़ा घोंसला बेचारी का
किससे अपनी बात कहेगी
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?



घर में पेड़ कहाँ से लाएँ
कैसे यह घोंसला बनाएँ
कैसे फूटे अंडे जोड़ें
किससे यह सब बात कहेगी
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?

--महादेवी वर्मा
नन्हें चुनमुन
नन्हें चुनमुन फुदक रहे हैं,
घर आंगन में चहक रहे हैं,
नीम निबौरी पके हए है,
डाल-डाल से टपक रहे है।

चुनमुन की मम्मी आती है,
एक निबौरी ले आती है,
चुनमुन के मुंह में टपका कर,
दूर बहुत ही उड़ जाती है।

चुनमुन सोचे मैं नन्हा हूं,
मां के आंचल का पन्ना हूं,
मुझे खिलाकर खुद भूखी रह,
ऐसी मां का मैं मुन्ना हूं।

बड़ा एक दिन हो जाऊँगा,
रूपया-पैसा घर लाऊँगा,
मां के हाथों में रख दूँगा,
राजा बेटा कहलाऊँगा।
-पवन कुमार शाक्य
चीं चीं चूं चूं
 
ला चिड़िया ला तिनका ला तू
मेरे भी घर उड़कर आ तू
सुंदर सुंदर प्यारा प्यारा
एक घोंसला यहाँ बना तू


इसमें फिर तू अंडे देना
बड़े प्यार से उनको सेना
तब निकलेंगे छोटे बच्चे
चीं चीं करते चूँ चूँ करते


-दिविक रमेश

Tuesday, November 2, 2010

Haapy Deepavali

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Best wishes by :-
SATYAM SRIVASTAVA / DIKSHA SRIVASTAVA
SHUBHAM SRIVASTAVA
PRIYAM SRIVASTAVA


Happy Deepavali

Monday, October 25, 2010

Aahat. . .

Aahat. . .
aishwarya
Khaamosh guzar ti ho ,
Aangan se nakaabo.n main,
Haule se chhupa detin,
Munh apana kitaabon main.
Kangan ko karogi chup,
Paayal bhi utaarogi ,
Dhad_kan ka karogi kyaa ,
Aahat to wohi hogi
Hai pyaar hamai.n tum se,
Hamraaz farishtey hain,
Pehachaan le laankhon main,
Ye rooh ke rishtey hain.

SATYAM SRIVASTAVA

Ek kona aakaash . . .

aishwarya

Ek kona aakaash . . .
Itne bade aasmman main se,
Kona ek hamain de deti.n,
Koi naam tumhai.n ham dete,
Koi naam hamain de deti.n.

Itne khel khel leti ho,
Khilti ho khushboo deti ho,
Kahatee yaa, choodi khanakaa kar,
Man ki baat zaraa keh detin

Tumse kuch poochai.n to kaise,
Kaise kahe.n kaho to yaara,
The na jab jawab zabaa.n par,
Binaa sawalo.n ke de deti.n

Dekhi maut paas se tab se,
Hamko jeene ki sudh aayee,
Khushi kahaa.n hain dhoond rahe hai.n,
Apanaa saath zaraa de deti.n
.
Sabhi qaayade aur kitaabe.n,
Jeene ke raste kahate hai.n
,
Jaan kahaan hai jaan gayee ho,
Hans kar haath zaraa de deti.n !



Paas se . . .

ash
Tumhai.n dekhataa hoo.n
Jab paas se mai.n,
Kuchh ek saans letaa hoo.n
Vishwaas se mai.n.

Samandar samandar
Kaha.n tak chaloonga,
Tanha raat bhar yoo.n
Kaha.n tak jaloonga,
Yo.n sheesho.n se bach kar,
Yo.n bheedo.n main chhupkar,
Mai.n apane hi mann ko
Kahaa.n tak chhaloongaa,
Bahut thak gayaa hoo.n
Is aabhaas se mai.n

Tumhai.n dekhataa hoo.n
Jab paas se mai.n !

Har ek dard dil mai.n
Chhupaaye chhupaaye ,
Koi zindagi ko kaha.n tak
Chukaaye ,
Har ek shaam dhoondhali,
Har ek raat kaali,
Sitaare bhi hote hai.n
Kitane paraaye,
Bahut mil gayaa hoo.n
Aakaash se mai.n,

Tumhai.n dekhataa hoo.n
Jab paas se mai.n !



SATYAM SRIVASTAVA

Kaho na ..

Kaho na ..
ash
Kuchh pal saath chale to jaanaa,
Rastaa hai jaanaa pehchanaa .
Saanso ko sur de jaataa hai,
Tera yo.n sapano mai.n aanaa.
Maine jatan kiye to lakho.n
Mann ne meet tumhi ko maanaa

Ab to haath thhaam lene do
Aur kaho na , na na , na na !

.... Satyam......
Kuchh kaho na !

dilse
Sau janam ka saath apna,
Sans ka dhadkan se jaise,
Aas ka jeevan se jaise,
Kaise kate saal solah,
Shyam ki jogan ke jaise.
Jhoot ke parde na dhoondo,
Sach kaho na .
Kuchh kaho na ..
 
 Ek dooje ke liye ham,
Haath main kangan ke jaise,
Pyaas main sawan ke jaise,
Roop ko darpan ke jaise,
Bhakt ko bhag_van ke jaise.
Jheel si simtee na baitho,
Kuchh baho na .
 Kuchh kaho na ..
Jaanata hoon thak gayee ho,
Umr ke lambe safar se,
Saanp se dasate shahar se,
Aas se aur aansuon se,
Bheed ke gahare bhawanar se.
Waqt firata hai suno,
Itna daro na . 

Kuchh kaho na ..
 
 Kis tarah ladatee rahi ho,
Pyaas se parchhaiyon se,
Neend se , angadaiyon se,
Maut se aur zindagi se,
Teej se ,tanahaiyon se.
Sab tapasya tod dalo,
Ab saho na
Kuchh kaho na !!
 
  
Kuchh kaho na !
photobyhemantkhandelwal
Syaah sannaton main hamane,
Umr katee hai tanhaa,
Tang aur andhi surangen,
Is gufaa se us gufaa.

Saans thi sahami hui si,
Dhadakanon ko ek darr,
Itnaa tanhaa aur lambaa,
Zindgi ka uff safar.
Door meelon door jalati ,
Lau koi lagatee ho tum ,
Tum ho,tum ho,Tum hi tum ho ,
Ho naa tum, tum, ho naa tum.

Pal se pal tak jee rahe hain,
Tum hi pal pal aas ho na,
Ek pal to aur thaharo ,
Ek pal dikhati raho na .

Kuchh kaho na !!

Thursday, October 21, 2010

किताब

किताब
हैरत है।
अक्षर नहीं हैं आज किताब पर

कहाँ चले गए अक्षर
एक साथ अचानक?

सबेरे सबेरे
काले बादल उठ रहे हैं चारों ओर से
मैली बोरियां ओढ़कर सड़क की पेटियों पर
गंदगी के पास सो रहे हैं बच्चे
हस्पताल के बाहर सड़क में
भयानक रोग से मर रही है एक युवती
पैबन्द लगे मैले कपड़ों में
हिमाल में ठंड से बचने की प्रयास में कुली
एक और प्रहर के भोजन के बदले
खुदको बेच रहे हैं लोग ।

मैं एक एक करके सोच रहा हूँ सब दृश्य
चेतना को जमकर कोड़े मारते हुए,
खट्टा होते हुए, पकते हुए
खो रहा हूँ खुद को अनुभूति के जंगल में ।

कितना पढूँ ? बारबार सिर्फ किताब
समय को टुकडों में फाड़कर
मैं आज दुःख और लोगों के जीवन को पढूंगा ।

अक्षर नहीं हैं किताब पर आज।

* * *

एक बौनी बूँद

एक बौनी बूँद

एक बौनी बूँद ने
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा

बाकी बूँदें भी
देखा देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का मुक्की
लगा लटकीं

क्षण भर के लिए
लंबी हुई
फिर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूँदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी।
* * *

प्यार गंगा की धार

प्यार गंगा की धार

रजनी जग को सुलाये
सहे तिमिर का वार
नभ खुश हो पहनाये
चांद-तारों का हार

बन के खुद आइना रहा रूप को निखार
प्यार गंगा की धार

भूख सह कर भी मां
दर्द से जार-जार
तृप्त कर दे शिशु को
कैसी खुश हो अपार

भर के बांहों में वह करे असुंवन संचार
प्यार गंगा की धार

भक्त सहते गये
दुष्ट दैत्यों की मार
किया जगजननी ने
राक्षसों पर प्रहार

माँ की लीली कहे करुणा जीवन का सार
प्यार गंगा की धार

प्रकृति मां का रूप
झेले जगति का भार
लालची नर करे
दासी जैसा व्यवहार

छेद ना कर मूरख जबकि नैया मंझदार
प्यार गंगा की धार

क्रोध मद लोभ से
हुआ जीवन दुष्वार
काम से निकला प्रेम -
पुष्प के रस का तार

बांध कर ले गया स्वार्थ-लिप्सा के पार
प्यार गंगा की धार।

* * *

माँ की व्यथा

माँ की व्यथा
मेरी व्यथा
अनकही सही
अनजानी नहीं है
मुझ जैसी
हज़ारों नारियों की
कहानी यही है

जन्म से ही
खुद को
अबला जाना
जीवन के हर मोड़ पर
परिजनों ने ही
हेय माना

थी कितनी प्रफुल्लित मैं
उस अनूठे अहसास से
रच बस रहा था जब
एक नन्हा अस्तित्व
मेरी सांसों की तार में
प्रकृति के हर स्वर में
नया संगीत सुन रही थी
अपनी ही धुन में
न जाने कितने
स्वप्न बुन रही थी

लम्बी अमावस के बाद
पूर्णिमा का चाँद आया
एक नन्हीं सी कली ने
मेरे आंगन को सजाया

आए सभी मित्रगण, सम्बन्धी
कुछ के चहरे थे लटके
तो कुछ के नेत्रों में
आंसू थे अटके
भांति भांति से
सभी समझाते
कभी देते सांत्वना
तो कभी पीठ थपथपाते
कुछ ने तो दबे शब्दों में
यह भी कह डाला
घबराओ नहीं, खुलेगा कभी
तुम्हारी किस्मत का भी ताला

लुप्त हुआ गौरव
खो गया आनन्द
अनजानी पीड़ा से यह सोचकर
बोझिल हुआ मन
क्या हुआ अपराध
जो ये सब मुझे कोसते हैं
दबे शब्दों में
मन की कटुता में
मिश्री घोलते हैं

काश! ममता में होता साहस
माँ की व्यथा को शब्द मिल जाते
चीखकर मेरी नन्हीं कली का
सबसे परिचय यूँ कराते
न इसे हेय, न अबला जानो
'खिलने दो खुशबू पहचानो'

* * *

कहो कैसे हो

कहो कैसे हो
                       लौट रहा हूँ मैं अतीत से
                       देखूँ प्रथम तुम्हारे तेवर
                       मेरे समय! कहो कैसे हो?

शोर-शराबा चीख़-पुकारें सड़कें भीड़ दुकानें होटल
सब सामान बहुत है लेकिन गायक दर्द नहीं है केवल
                       लौट रहा हूँ मैं अगेय से
                       सोचा तुम से मिलता जाऊँ
                       मेरे गीत! कहो कैसे हो?
भवन और भवनों के जंगल चढ़ते और उतरते ज़ीने
यहाँ आदमी कहाँ मिलेगा सिर्फ़ मशीनें और मशीनें
                       लौट रहा हूँ मैं यथार्थ से
                       मन हो आया तुम्हें भेंट लूँ
                       मेरे स्वप्न! कहो कैसे हो?
नस्ल मनुज की चली मिटाती यह लावे की एक नदी है
युद्धों का आतंक न पूछो ख़बरदार बीसवीं सदी है
                       लौट रहा हूँ मैं विदेश से
                       सब से पहले कुशल पूँछ लूँ
                       मेरे देश! कहो कैसे हो?
यह सभ्यता नुमाइश जैसे लोग नहीं हैं सिर्फ़ मुखौटे
ठीक मनुष्य नहीं है कोई कद से ऊँचे मन से छोटे
                       लौट रहा हुँ मैं जंगल से
                       सोचा तुम्हे देखता जाऊँ
                       मेरे मनुज! कहो कैसे हो?
जीवन की इन रफ़्तारों को अब भी बाँधे कच्चा धागा
सुबह गया घर शाम न लौटे उस से बढ़ कर कौन अभागा
                       लौट रहा हूँ मैं बिछोह से
                       पहले तुम्हें बाँह में भर लूँ
                       मेरे प्यार! कहो कैसे हो?

* * *

निश्छल भाव

निश्छल भाव
मेरे अन्दर एक सूरज है, जिसकी सुनहरी धूप
देर तक मन्दिर पे ठहर कर
मस्जिद पे पसर जाती है !
शाम ढले, मस्जिद के दरो औ-
दीवार को छूती हुई मन्दिर की
चोटी को चूमकर छूमन्तर हो जाती है !

मेरे अन्दर एक चाँद है, जिसकी रूपहली चाँदनी
में मन्दिर और मस्जिद
धरती पर एक हो जाते है !
बड़े प्यार से गले लग जाते हैं !
उनकी सद्भावपूर्ण परछाईयाँ
देती हैं प्रेम की दुहाईयाँ !

मेरे अन्दर एक बादल है, जो गंगा से जल लेता है
काशी पे बरसता जमकर
मन्दिर को नहला देता है,
काबा पे पहुँचता वो फिर
मस्जिद को तर करता है !
तेरे मेरे दुर्भाव को, कहीं दूर भगा देता है !

मेरे अन्दर एक झोंका है, भिड़ता कभी वो आँधी से,
तूफ़ानों से लड़ता है,
मन्दिर से लिपट कर वो फिर
मस्जिद पे अदब से झुक कर
बेबाक उड़ा करता है !
प्रेम सुमन की खुशबू से महका-महका रहता है !

मेरे अन्दर एक धरती है, मन्दिर को गोदी लेकर
मस्जिद की कौली भरती है,
कभी प्यार से उसको दुलराती
कभी उसको थपकी देती है,
ममता का आँचल ढक कर दोनों को दुआ देती है !

मेरे अन्दर एक आकाश है, बुलन्द और विराट है,
विस्तृत और विशाल है,
निश्छल और निष्पाप है,
घन्टों की गूँजें मन्दिर से,
उठती अजाने मस्जिद से
उसमें जाकर मिल जाती है करती उसका विस्तार है !

* * *

लो वही हुआ

लो वही हुआ
लो वही हुआ जिसका था डर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

      सूरज की किरन दहाड़ गई,
      गरमी हर देह उघाड़ गई,
      उठ गया बवंडर, धूल हवा में -
      अपना झंडा गाड़ गई,
गौरइया हाँफ रही डर कर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

      हर ओर उमस के चर्चे हैं,
      बिजली पंखों के खर्चे हैं,
      बूढ़े महुए के हाथों से,
      उड़ रहे हवा में पर्चे हैं,
"चलना साथी लू से बच कर".
ना रही नदी, ना रही लहर।

      संकल्प हिमालय सा गलता,
      सारा दिन भट्ठी सा जलता,
      मन भरे हुए, सब डरे हुए,
      किस की हिम्मत, बाहर हिलता,
है खड़ा सूर्य सर के ऊपर,
ना रही नदी ना रही लहर।

      बोझिल रातों के मध्य पहर,
      छपरी से चन्द्रकिरण छनकर,
      लिख रही नया नारा कोई,
      इन तपी हुई दीवारों पर,
क्या बाँचूँ सब थोथे आखर,
ना रही नदी ना रही लहर।

Thursday, October 14, 2010

Svagat

माया विस्तीर्ण जगत की
छल की प्रपंच की छाया
प्रतिविम्ब न ठहरे क्षण भर
हिलती दर्पण की काया


कुछ सघन निराशा के पल
सुधियों से निज संघर्षण
हम समर छोडते फिरते
पर पीछे पड़ जाते रण


विश्वास-विटप उन्मूलित
कामना-कलित झंझा से
अंकुर-अभिलाषा फिर भी
क्यों भ्रूणहीन बंझा से


जैसे प्रवाल कोटर में
मत्स्या के चंचल फेरे
कुछ ध्वनियाँ आती-जाती
रहतीं मस्तके में मेरे


शीशे के नग को पहना
हीरक-मुद्रिका समझ कर
पर वह भी आत्म-विमोहित
जा निकला दूर छिटक कर


अनु्गूँज उठा करती है
प्रायः मानस-तलघर में
कुछ सघन तरंगे आकर
छा जातीं विश्वंकर में


चंचल मन बैठ न पाये
रख धैर्य-शिला पर आसन
उद्धत इंद्रियाँ तोड़तीं
मर्यादा का अनुशासन


अद्भुत रहस्य संकुल सा
मानव मन अगम पहेली
इच्छायें चपल नटी सी
करती रहतीं अठखेली


दुस्तर अगाध भवनिधि में
है दिवास्वप्न की तरणी
शत घूर्णावर्त तरंगे
मथ देतीं जैसे अरणी


पथ निन्दित या अभिनन्दित
संकल्प-विकल्प-अनिश्चय
निज-कर्म-विपाक करेगा
किस पाप-पुण्य का संचय


ज्यों सूक्ष्म भार अंतर से
हो स्वर्ण-तुला में दोलन
लघु लाभ-हानि की गणना
करती मन में आड़ोलन


हैं सुख के क्षण उल्का से
जीवन की अमा-निशा में
तारक-मणियों से मण्डित
नभ, यद्यपि सभी दिशा में


संघर्ष विषय-संयम का
लेता नित नई परीक्षा
प्रायः अनंग के शर से
हो गई बिद्ध गुरु-दीक्षा


विचलन ही है यदि प्रचलन
तब चलन अरक्षित ऐसे
स्वानों के संरक्षण में
हो भोज्य सुरक्षित जैसे


किस प्रेरक की इच्छा से
आकर्षण और विकर्षण
विपरीत वायु के बल से
होते देखा है वर्षण


उत्तर अनेक प्रश्नों का
बस मात्र एक चुप्पी है
सृष्टा की सब मर्यादा
आकर के यहीं छिपी है

विडम्बनाओं का खेल

विडम्बनाओं का खेल


करत करत अभ्यास के
शांतिप्रिय भए शैतान
गाँधी जी के देश में
बंदूक-तमंचे वाले पा रहे इनाम

देश-विदेश के नर-नार ने
देखें राष्ट्रमंडल खेल
लेकिन दिल्लीवासी घर में बंद
जैसे काट रहे हो जेल

खेल के नाम पे लूट है
लूट सके तो लूट
कहने को है गाँव मगर
ठाठ-बाट भरपूर

कलमाडी पुलिया खेल की
क्यूँ दी तोड़ भड़भड़ाय?
सेना ने तो जोड़ दी
पर ओलम्पिक दियो गँवाय

लाखों-करोड़ों फूँक के
किए समारोह भव्य
और रामलला की रामलीला को
मिले छटाँक न द्रव्य

Tuesday, October 5, 2010

इंसान ऊँट बनने लगा है

इंसान ऊँट बनने लगा है

 
पहले शहर के बाहर
एक भव्य
टंकी हुआ करती थी
 
फिर
एक दौर ऐसा आया
कि हर घर की छत पर
सिंटेक्स की काली टंकी
नज़र आने लगी
 
कालांतर में
हर किचन में
एक आर-ओ का
रिवाज़ चल पड़ा
 
अब शनै: शनै:
इंसान ऊँट बनने लगा है
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है
कि पानी की थैली
पेट में न हो कर
पीठ पर है